BSNL कभी थी नंबर वन और अब क्यों है डूबने की कगार पर
फरवरी में कर्मचारियों की तनख्वाहों में 15 दिनों की देरी मीडिया में बड़ी-बड़ी सुर्खियां थीं। अनुपम श्रीवास्तव को ये पता था कि अगर ये सुर्खियां लंबे समय तक चलीं तो बैंकों से कर्ज लेना और मुश्किल हो जाएगा।
जून में रिटायर हुए अनुपम श्रीवास्तव बताते हैं, “चुनौती थी कि पैसे कैसे इकट्ठा करें, एक अस्थायी कैश फ्लो की स्थिति से कैसे निपटें।” पैसों का इंतजाम करने के बाद मार्च में कंपनी ने अपने कर्मचारियों की तनख्वाहें दीं।
अक्टूबर 2002 में बीएसएनएल मोबाइल सेवा के लॉन्च होने के मात्र डेढ़ दो सालों में भारत की नंबर वन मोबाइल सेवा बनने वाली बीएसएनएल पर करीब 20 हजार करोड़ रुपये का कर्ज है।
अधिकारी याद दिलाते हैं कि ये बीएसएनएल ही थी जिसकी फ्री इनकमिंग कॉल्स, फ्री रोमिंग जैसी सुविधाओं से दामों में भारी गिरावट आई। हालांकि बीएसएनल अधिकारी ये दावा करते नहीं थकते कि प्राइवेट टेलीकॉम ऑपरेटर्स के मुकाबले बीएसएनएल पर कर्ज “चिल्लर जैसा” है। कुछ लोग कह रहे हैं कि बीएसएनएल को बंद कर दिया जाए। कुछ इसके निजीकरण पर जोर दे रहे हैं।
पूर्व बीएसएनल अधिकारियों से बातचीत में ऐसी तस्वीर उभरती हैं जिससे लगता है कि बीएसएनएल की आंतरिक चुनौतियों और सरकार के कड़े शिकंजे और काम में कथित सरकारी दखलअंदाजी के कारण कंपनी आज ऐसी स्थिति में है।
कंपनी में करीब 1।7 लाख कर्मचारियों की औसत उम्र 55 वर्ष है और एक वरिष्ठ अधिकारी के मुताबिक “इनमें से 80 प्रतिशत बीएसएनएल पर बोझ हैं क्योंकि वो तकनीकी तौर पर अनपढ़ हैं जो नई तकनीक सीखना ही नहीं चाहते और इसका असर युवा कर्मचारियों के मनोबल पर पड़ता है।”
बीएसएनएल कर्मचारी यूनियन इन आरोपों से इनकार करता है। जहां बीएसएनएल अपनी आमदनी का 70 प्रतिशत तन्ख्वाहों पर खर्च करती है, निजी ऑपरेटर्स में ये आंकड़ा 3-5 प्रतिशत है।
एक अधिकारी के मुताबिक जहां निजी ऑपरेटर्स का आरपू (ARPU) यानी हर ग्राहक से होनी वाली आमदनी करीब 60 रुपये है, बीएसएनएल में ये 30 रुपये है क्योंकि बीएसएनएल के ज्यादातर ग्राहक कम आमदनी वाले हैं।
सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री रविशंकर प्रसाद ने राज्य सभा में बीएसएनएल के लिए आर्थिक पैकेज की बात कही तो है लेकिन कंपनी के भविष्य को लेकर अटकलें जारी हैं। लेकिन बड़ा सवाल ये है कि आखिर एक जमाने की नंबर वन कंपनी बीएसनएल इस हाल में कैसे पहुंची?
बीएसएनएल का लॉन्च
अनुपम श्रीवास्तव बताते हैं, “जब हमें बीएसएनएल की सिम्स (सिम कार्ड) मिलती थीं तब हमें पुलिस, प्रशासन के वरिष्ठ अधिकारियों को सुरक्षा देने के लिए बताना पड़ता था क्योंकि अव्यवस्था का खतरा पैदा हो जाता था। वो दिन थे जब बीएसएनएल सिम्स के लिए तीन से चार किलोमीटर लंबी लाइनें लगती थीं।”
ये वो वक़्त था जब निजी ऑपरेटरों ने बीएसएनएल के लॉन्च के महीनों पहले मोबाइल सेवाएं शुरू कर दी थीं लेकिन बीएसएनएल की सेवाएं इतनी लोकप्रिय हुईं कि बीएसएनएल के ‘सेलवन’ ब्रैड की मांग जबर्दस्त तरीके से बढ़ गई। अधिकारी गर्व से बताते हैं कि “लॉन्च के कुछ महीनों के बाद ही बीएसएनल देश की नंबर वन मोबाइल सेवा बन गई”
सरकारी दखल
साल 2000 में स्थापना के बाद बीएसएनएल के अधिकारी जल्द से जल्द मोबाइल सेवाएं शुरू करना चाहते थे ताकि वो निजी ऑपरेटरों को चुनौती दे सकें लेकिन वरिष्ठ अधिकारियों के मुताबिक उन्हें जरूरी सरकारी सहमति नहीं मिल पा रही थी।
विमल वाखलू उस वक्त बीएसएनल में वरिष्ठ पद पर थे। वो बताते हैं, “हम काफी निराश थे। हम एक रणनीति पर काम करना चाहते थे ताकि हम मुकाबले को पीछे छोड़ सकें।” वो कहते हैं, “बीएसएनएल के बोर्ड ने प्रस्ताव पारित कर सेवाओं को शुरू करने का फैसला किया।”
उस वक्त डॉक्टर डीपीएस सेठ बीएसएनएल के पहले प्रमुख थे। वो सरकार के साथ अपने रिश्तों पर बहुत बात नहीं करना चाहते लेकिन कहते हैं कि शुरुआत में फैसले लेने में जो आजादी थी वो धीरे-धीरे कम होने लगी।
विमल वाखलू बताते हैं, “जब बीएसएनएल की सेवाओं की शुरुआत हुई, उस वक़्त निजी ऑपरेटर 16 रुपये प्रति मिनट कॉल के अलावा आठ रुपये प्रति मिनट इनकमिंग के भी पैसे चार्ज करते थे। हमने इनकमिंग को मुफ्त किया और आउटगोइंग कॉल्स की कीमत डेढ़ रुपये तक हो गई। इससे निजी ऑपरेटर हिल गए।”
बीएसएनएल कर्मचारी 2002-2005 के इस वक्त को बीएसएनएल का सुनहरा दौर बताते हैं जब हर कोई बीएसएनएल का सिम चाहता था और कंपनी के पास 35 हजार करोड़ तक का कैश रिजर्व था, जान-पहचान वाले बीएसएनएल सिम के लिए मिन्नतें करते थे।