कैसे चुपचाप भारत पहुंचे थे दलाई लामा
ठंड बीतते-बीतते भारत ने दलाई लामा को राजनीतिक शरण देने की हामी भर दी. मार्च, 1959 के आखिरी दिन दलाई लामा ने स्वदेश छोड़ने का फैसला लिया, लेकिन हर तरफ चीनी सैनिकों की निगरानी के बीच यह इतना आसान नहीं था. ऐसे में उन्होंने पलायन के लिए ‘अंधेरे’ को चुना. उस शाम वे अपने चंद करीबी साथियों के साथ ‘मैकमोहन लाइन’ की तरफ बढ़े और रात के अंधेरे में इस लाइन को पार कर भारत आ गए. दलाई लामा ने भारत में अपनी पहली रात अरुणाचल प्रदेश के तवांग के एक बौद्ध मठ में गुजारी. करीब तीन सप्ताह बाद भारतीय अधिकारी उन्हें प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से मिलवाने दिल्ली ले आए.
जिस वक्त दलाई लामा अपना देश छोड़कर भारत आये थे, उस दौरान भारत के चीन के साथ संबंध काफी नाजुक स्थिति में थे. 1957 की गर्मियों में लद्दाख के लामा और सांसद कुशक बाकुला ने तिब्बत का दौरा किया था और देखा था कि किस तरह चीन सिक्यांग की तरफ सड़क आदि बनाने में जुटा है. खैर, दलाई लामा नेहरू से मिले और तिब्बत के हालात से रूबरू कराया. विख्यात इतिहासकार रामचंद्र गुहा अपनी किताब ‘इंडिया आफ्टर गांधी’ में लिखते हैं, ‘नेहरू ने दलाई लामा से कहा कि भारत तिब्बत की आजादी के लिए चीन से युद्ध नहीं कर सकता है. उन्होंने कहा, हकीकत तो यह है कि पूरी दुनिया भी मिलकर तिब्बत को तब तक आजादी नहीं दिला सकती है जब तक चीनी राष्ट्र-राज्य का संपूर्ण तानाबाना खत्म न हो जाए’.
जवाहरलाल नेहरू हमेशा से मानते थे कि तिब्बत समस्या का हल चीनियों से बातचीत कर ही निकल सकता है. बहरहाल, समस्या आज भी जस की तस बनी हुई है. दलाई लामा के पलायन के करीब पांच दशक बीतने के बाद अब चीन ने तिब्बत को करीबन ‘कब्जा’ लिया है. भारत में निर्वासित जिस दलाई लामा को ‘शांति’ का नोबल पुरस्कार मिला, चीन उन्हें अपनी शांति के लिये सबसे बड़ा खतरा बताता रहा है और अक्सर विरोध करता रहा है. यहां तक कि दलाई लामा जब पिछले दिनों अरुणाचल प्रदेश गये तो चीन को इससे भी खतरा नजर आया और इसका विरोध किया. दलाई लामा के निवार्सन के 60 साल पूरे होने पर आज एक बीजिंग ने एक बार फिर तिब्बत पर अपनी नीतियों का बचाव किया है. जबकि दूसरी तरफ, तिब्बती लगातार यह कहते रहे हैं कि बीजिंग अपने फायदे के लिए हिमालय क्षेत्र के संसाधनों का दुरुपयोग करता है. साथ ही तिब्बत की अनूठी बौद्ध संस्कृति भी नष्ट हो रही है.