राधिका रामासेशन (वरिष्ठ पत्रकार)

नरेंद्र मोदी की राजनीतिक किताब में किसी का स्वागत है तो किसी के लिए दरवाजे बंद हैं.

अगर ऐसा लगने लगे कि कोई काम का नहीं रह गया, तो उनकी राजनीतिक किताब के मुताबिक़ उसे बलि का बकरा बनाया जा सकता है. लेकिन सवाल उठता है कि कैसे यह तय होगा कि कौन काम का नहीं रह गया?

इस सवाल का जवाब आप एक तरफ मोदी की क़रीबी राजनीतिक सहयोगी स्मृति इरानी और आनंदीबेन पटेल, तो दूसरी ओर वसुंधरा राजे और सुषमा स्वराज को देख कर पा सकते हैं.

स्मृति इरानी और आनंदीबेन पटेल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रति कभी निर्विवादित रूप से वफादार मानी जाती थीं, खासतौर पर आनंदीबेन पटेल. कई सालों पहले जब मोदी को गुजरात बीजेपी में कोई नहीं पूछ रहा था तब आनंदीबेन पटेल ने नरेंद्र मोदी का साथ देने का जोख़िम लिया था.

फिर भी मोदी ने पार्टी के अंदरूनी दबाव और बाहरी मजबूरियों में आकर इन दोनों महिला नेताओं की कुर्बानी दे दी.

ना ही स्मृति इरानी और ना ही आनंदीबेन पटेल को बाहर का रास्ता दिखाया गया है, लेकिन उनके साथ जो कुछ हुआ है उससे उनकी गरिमा को तो जरूर ठेस पहुंची है.

समृति इरानी से मानव संसाधन विकास मंत्रालय लेकर उन्हें एक कम अहमियत वाला कपड़ा मंत्रालय दे दिया गया. वहीं आनंदीबेन पटेल को गुजरात का मुख्यमंत्री पद छोड़ना पड़ा.

शायद उन्हें गर्वनर का पद देकर इसकी क्षतिपूर्ति की जाए. कभी गुजरात की राजनीति में मोदी का ‘दायां हाथ’ मानी जाने वाली आनंदीबेन पटेल के लिए बीजेपी के नेता इसे ‘एक छोटी सी तब्दीली’ बताते हैं.

गुजरात में मोदी का ‘बायां हाथ’ माने जाने वाले अमित शाह ने मुख्यमंत्री पद के लिए ‘उपयुक्त’ आदमी को आगे बढ़ाया है.

जानकार बताते हैं अमित शाह ने उन्हें चेताया था कि अगर आनंदीबेन पटेल मुख्यमंत्री पद पर बनी रहती हैं तो 2017 के चुनाव में बीजेपी के लिए जीतना मुश्किल हो जाएगा.

मोदी ने अमित शाह की बात को तरजीह देते हुए आख़िरकार उनकी बात मान ली.

गुजरात बीजेपी के एक सूत्र का कहना है, “इसके स्पष्ट कारण हैं. आनंदीबेन पटेल शुरू से ही उनकी करीबी थीं. उन्होंने अपना राजनीतिक कद पूरी तरह से मोदी की मदद से ही बढ़ाया है. वो पूरी तरह से उनके प्रति कृतज्ञता से भरी हुई थीं. उन्होंने कभी भी अपने लिए अलग से राजनीतिक आधार बनाने की कोशिश नहीं की. उन्हें विश्वास था कि उन्हें हमेशा मोदी का समर्थन मिलता रहेगा.”

जब मोदी मई 2014 में दिल्ली की बागडोर संभालने गुजरात से दिल्ली आ गए, तो उन्हें आनंदीबेन को अपना उत्तराधिकारी बनाने में थोड़ी-सी भी हिचक नहीं हुई.

बीजेपी के सूत्रों का कहना है, “आनंदीबेन मोदी से अपनी ताकत पाती थीं. जब तक यह अवधारणा बनी रही तब तक विधायक उनके अधीन थे. फिर इसके बाद जब इस बात की भनक लगनी शुरू हुई कि मोदी अब उनके साथ पूरी तरह से नहीं हैं, तो धीरे-धीरे विधायक पार्टी के अंदरखाने में विरोध दिखाने लगे.”

राजनीति में आने से पहले आनंदीबेन पेशे से एक शिक्षिका थीं और उनके पति मफतभाई पटेल बीजेपी के कार्यकर्ता हुआ करते थे.

उस वक्त उनके घर पर शंकरसिंह वाघेला, केशुभाई पटेल और नरेंद्र मोदी का आना-जाना लगा रहता था. उस दौर में ये नेता गुजरात में बीजेपी की जड़ों को मजबूत बनाने में जुटे हुए थे.

नरेंद्र मोदी को उस दौर में लगा कि पार्टी को उनकी तरह ज्यादा ‘पढ़ी-लिखी’ महिलाओं की जरूरत है. उन्होंने आनंदीबेन को पार्टी ज्वाइन करने को कहा.

मफतभाई ने एक इंटरव्यू में कहा है कि उन्हें आनंदीबेन के राजनीति में आने से कोई एतराज नहीं था.

हालांकि, गुजरात बीजेपी में इस बात की चर्चा थी कि वो नहीं चाहते थे कि उनकी पत्नी राजनीति में आएं.

आनंदीबेन को बीजेपी में जगह मिली और 1992 में वो मोदी और मुरली मनोहर जोशी के साथ श्रीनगर से कन्याकुमारी तक की ‘एकता यात्रा’ में शामिल हुईं. उन्हें उस वक्त पार्टी के अंदर काफी वाहवाही मिली.

नब्बे के दशक के आख़िरी पड़ाव में मोदी को गुजरात बीजेपी के महासचिव संजय जोशी ने गुजरात से बाहर जाने को मजबूर कर दिया था.

संजय जोशी को इस बात का यकीन था कि मोदी केशुभाई पटेल की सरकार को अस्थिर कर सकते हैं और ख़ुद मुख्यमंत्री बनने का दावा कर सकते हैं.

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उस वक्त आनंदीबेन ने मोदी का समर्थन किया था. पार्टी सूत्रों का कहना है, “उन्हें मोदी की परछाईं के तौर पर देखा जाता था. इसलिए उनके जाने से उनके नजदीकी लोगों को आश्चर्य हुआ, जो यह समझते थे कि आनंदीबेन कोई भी फ़ैसला लेने को पूरी तरह से आज़ाद हैं.”

अमित शाह, आरएसएस और दूसरे नेताओं के कहने पर नरेंद्र मोदी ने उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया.

संघ परिवार उनकी बेटी अनार पटेल को लेकर नाराज़ था. पार्टी सूत्रों का कहना है, “मोदी उन्हें बाहर का रास्ता इसलिए दिखा सके क्योंकि वो एक ऐसी नेता थीं जिनका कोई जनाधार नहीं था.”

रही बात स्मृति इरानी की, तो कुछ ही दिन पहले तक उन्हें उत्तर प्रदेश में बीजेपी की उम्मीद के तौर पर देखा जा रहा था. 2014 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने अमेठी में राहुल गांधी के ख़िलाफ़ अपनी इच्छा से चुनाव लड़ा था.

इससे पहले उन्होंने प्रमोद महाजन के कहने पर कांग्रेस के कपिल सिब्बल के ख़िलाफ़ 2004 में चुनाव लड़ा था.

स्मृति इरानी इन दोनों ही चुनावों में भले ही हार गई हों, लेकिन उनके साहस और निर्भयता से मोदी प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके.

इसलिए अभी कुछ समय पहले तक ही इस बात की अटकलें लगाई जा रही थीं कि वो उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री पद की दावेदार होंगी.

लेकिन स्मृति इरानी के आभा मंडल के नीचे नरेंद्र मोदी उनसे जुड़े विवादों को नज़रअंदाज नहीं कर सकते थे.

आनंदीबेन की तरह ही संघ भी स्मृति इरानी को लेकर लगातार शिकायतें कर रहा था कि वो बीजेपी में अपनी राजनीतिक हैसियत बढ़ाने के लिए वो कथित तौर पर संघ के बड़े पदाधिकारियों के साथ नज़दीकी बढ़ा रही हैं.

एक वक्त पार्टी के अंदर से अपुष्ट ख़बरें आ रही थीं कि मंत्रालय के दूसरे पदाधिकारियों और शिक्षा जगत से जुड़े लोगों के साथ कथित तौर पर स्मृति इरानी के व्यवहार की वजह से मोदी काफी ‘हताश’ थे.

ये भी ख़बर थी कि उन्होंने स्मृति इरानी को छुट्टी लेने की सलाह दी थी.

आनंदीबेन के ऊपर तो कभी किसी ने आलाकमान की अवहेलना करने का आरोप नहीं लगाया था, लेकिन स्मृति इरानी को बीजेपी की ‘राष्ट्रीय कार्यकारिणी’ से निकालने के अमित शाह के फ़ैसले के बाद वो कुछ विवादों में ज़रूर आईं.

जब अप्रैल 2015 में बंगलुरु में राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक हो रही थी, तब स्मृति इरानी अपने परिवार के साथ गोवा में छुट्टियां मना रही थीं.

बैठक के पहले दिन जब अमित शाह उम्मीद कर रहे थे कि उनके भाषण को राष्ट्रीय मीडिया में प्रमुखता से जगह मिलेगी तब उसी दिन समृति इरानी ने कपड़े की भारत की एक बड़ी रिटेल कंपनी के ख़िलाफ़ ट्रायल रूम में सीसीटीवी कैमरे लगे होने की पुलिस में शिकायत दर्ज करवा दी.

उन्होंने अपनी शिकायत में आरोप लगाया कि उनकी रिकॉर्डिंग की गई है और इसके बाद अमित शाह के भाषण से सबका ध्यान हट गया और सारी सुर्खियां स्मृति बटोर ले गईं.

अब बात करते हैं वसुंधरा राजे और सुषमा स्वराज की. एक राजस्थान की मुख्यमंत्री हैं तो दूसरी मोदी सरकार में विदेश मंत्री. मोदी के साथ इन दोनों के संबंध भी तनाव भरे रहे हैं.

2015 की गर्मियों में इन दोनों पर आईपीएल में धांधली का आरोप झेल रहे पूर्व आईपीएल कमिश्नर ललित मोदी को मदद पहुंचाने का आरोप लगा.

सुषमा स्वराज ने मोदी और शाह को लेकर अपनी तल्खी को कभी छुपाया नहीं है. उन्होंने नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाए जाने से रोकने की बहुत कोशिश की.

बीजेपी को बहुमत दिलाने के बाद भी मोदी के प्रति उनकी भावना नहीं बदली. ज़ाहिर है कि मोदी उन्हें अपने कैबिनेट में नहीं लेना चाहते थे, लेकिन संघ के ज़ोर देने पर मोदी को उन्हें कैबिनेट में जगह देनी पड़ी.

ख़बर थी कि वसुंधरा अपने सांसद बेटे दुष्यंत सिंह को मंत्रिमंडल में नहीं लिए जाने पर मोदी से नाराज़ थीं. जबकि, राजस्थान की सारी सीटों पर लोकसभा में बीजेपी को जीत मिली थी.

उन्होंने दिल्ली में राजस्थान के सारे सांसदों की एक बैठक बुलाई जिसे मोदी ने नोट किया.

मोदी के साथ मतभेदों और भ्रष्टाचार के आरोपों के बावजूद वसुंधरा राजे पर कोई संकट नहीं आया.

बीजेपी के सूत्रों का कहना है, “आनंदीबेन और वसुंधरा में यही फ़र्क़ है कि वसुंधरा के पास अपने राज्य में एक मजबूत जनाधार और अपील है. उनके साथ बड़ी संख्या में विधायकों का समर्थन है. अगर उन्हें मुख्यमंत्री पद छोड़ने को कहा जाता, तो राजस्थान बीजेपी में विभाजन की स्थिति पैदा हो सकती थी.”

सुषमा स्वराज की बीजेपी में पहले जैसी पकड़ नहीं रह गई है. उनकी राजनीतिक और चुनावी काबिलियत पर कई लोग सवाल खड़े करते हैं.

लेकिन इसके बावजूद बीजेपी के सूत्रों का कहना है, “मोदी उनका कुछ नहीं कर सकते थे.”

(ये लेखिका के निजी विचार हैं.)