इसलिए मोदी सरकार उठाना चाहती है ये बड़ा कदम, ऐसे बदलने जा रहा है भारत?

वासुदेव त्रिपाठी

प्रागैतिहासिक काल में आग की खोज के बाद जब आदि मानव को आग के जला डालने वाले ख़तरे का अहसास…

प्रागैतिहासिक काल में आग की खोज के बाद जब आदि मानव को आग के जला डालने वाले ख़तरे का अहसास हुआ होगा, तो उसके लिए पके खाने और रौशनी के बदले इतनी ख़तरनाक खोज को अपने जीवन का हिस्सा बनाना कितना मुश्किल रहा होगा। लेकिन हमारे पुरखों ने डर और शंकाओं के बदले बदलाव और सकरात्मक पक्ष को चुना, और आज हम कंप्यूटर और मंगलयान के युग में जी रहे हैं। सभ्‍यता के बदलाव की कहानियां ऐसी ही बानगी पेश करती हैं। 1989 में जब एपीजे अब्दुल कलाम के नेतृत्व में उत्साही और जुझारू वैज्ञानिकों की टीम परमाणु सक्षम अग्नि मिसाइल पर काम कर रही थी, तो अपनी नज़र में वो एक मिसाइल नहीं, बल्कि भारत के भविष्य का निर्माण कर रहे थे। उस वक़्त देश पर तमाम वैश्विक ताकतों का भीषण दबाव था कि देश ये मिसाइल प्रोग्राम छोड़ दे,  गौर करने वाली बात यह थी कि उस समय वैज्ञानिकों को असली तनाव देश के बाहर से नहीं बल्‍कि अन्दर के ‘बुद्धिजीवियों’ से मिल रहा था।

इधर, इस पूरे कार्यक्रम पर, एक बड़े इंग्लिश डेली ने अग्नि मिसाइल प्रोग्राम का मजाक बनाते हुए कार्टून छापा था, जिसमें एक नेता रिपोर्टर को समझा रहा था कि “अलार्म जैसी कोई जरूरत नहीं है, ये मिसाइल तो एकदम अहिंसक है”। इस कार्टून के ज़रिए मिसाइल जैसे “हिंसक” अविष्कार की ओर कदम बढ़ाने की आलोचना की जा रही थी, और जब मिसाइल टेस्ट को कई बार तकनीकी समस्याओं का सामना करना पड़ा, तो इन बुद्धिजीवियों और पत्रकारों को बड़ा मौका मिल गया और अग्नि की आलोचना में अग्निबाणों की बौछार कर दी गई। बाद में भी एक इंग्लिश डेली में मिसाइल प्रोग्राम पर तंज कसा गया था कि किस तरह गरीबों को थोड़ा-थोड़ा मुआवजा देकर उनके घरों से विस्थापित किया गया। आपको आश्चर्य हो सकता है कि ऐसे लोग इस देश की कथित ‘बौद्धिक हक़ीकत’ रहे हैं, लेकिन हकीक़त यही है और ऐसी हकीकत का भारत रत्न कलाम साहब ने अपनी किताब ‘विंग्स ऑफ़ फायर’ विस्तार से ज़िक्र किया है।

बहरहाल, ढाई दशक का समय बीत गया है, लेकिन दकियानूसी सोच समय के साथ नहीं बदलती। आज जब देश डिजिटल इकॉनॉमी की तरफ बढ़ना चाह रहा है, तो ऐसे लोग दोबारा अपने कथित तर्कों के साथ तैयार खड़े हैं, ये बताने के लिए कि कैशलेस व्यवस्था की तरफ बदलाव के ये कदम कितने गलत या खतरनाक हैं। नई पीढ़ी के युवाओं के लिए, जो कि वाकई देश का और जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करते हैं, ई-बैंकिंग एक लक्ज़री है, जिसे कोई क्यों छोड़ना चाहेगा? मेरे तमाम दोस्तों के पास इस बदलाव के विरोध में बहस करने वालों के लिए वक़्त नहीं है, लेकिन फिर भी चूंकि हमारे देश में ये एक शुरुआत है इसलिए ज़रूरी है इसे तथ्यों की कसौटी पर भी कस लिया जाए। आइए जिन तथ्यों और आंकड़ों को ई-बैंकिंग या कैशलेस व्यवस्था के खिलाफ पेश किया जा रहा है, उन पर सिलसिलेवार नज़र डालते हैं।

ये बताने की कोशिश हो रही है कि भारत एक अशिक्षित और गरीब देश है इसलिए कैशलेस व्यवस्था यहां मुमकिन नहीं है। क्‍या ये बात वाकई सही  है? आपको बता दें कि हमारे देश में अब करीब दो तिहाई लोग साक्षर हैं और साक्षरता दर 2011 की जनगणना  के मुताबिक 74.04% है। इसका मतलब कम से कम आधे लोग इतना पढ़े हैं कि कैशलेस लेन-देन आसानी से कर सकते है।

तमाम आंकड़े पेश किए जा रहे हैं कि हमारे देश में इन्टरनेट की पहुंच बेहद कम है इसलिए कैशलेस व्यवस्था सफल नहीं हो सकती। कुछ लोग इन्टरनेट पहुंच का आंकड़ा केवल 12 से 16% भी बता रहे हैं।

इंटरनेट एंड मोबाइल एसोसिएशन ऑफ़ इंडिया के मुताबिक इंटरनेट यूज़र्स की संख्या 370 मिलियन यानी 37 करोड़ से ज़्यादा पहुंच चुकी है। वहीं इन्टरनेट के ग्लोबल आंकड़ों पर काम करने वाली संस्था ‘रियल टाइम स्टैट्स’ के मुताबिक भारत में 34.8% लोगों इन्टरनेट प्रयोग करने लगे हैं। इंटरनेट यूज़र्स की संख्या के मुताबिक भारत अमेरिका को पीछे छोड़कर चीन के बाद दुनिया में दूसरा सबसे बड़ा यूज़र बेस वाला देश बन चुका है। यही नहीं IAMAI के मुताबिक साल 2015 में देश में इन्टरनेट का ग्रोथ रेट 71% रहा, और ग्रामीण इलाकों का 93%। नैस्‍कॉम के मुताबिक़ देश में 2020 तक देश में इन्टरनेट यूज़र्स की संख्या करीब दोगुनी होकर 730 मिलियन यानी 73 करोड़ हो जाएग। यानी तीन से चार साल में देश की आधी से ज्यादा आबादी इन्टरनेट यूज़ करेगी।

कहा जा रहा है कि इंटरनेट की लिमिटेड पहुंच के चलते कैशलेस व्यवस्था सफल नहीं हो सकती? जबकि बिना इन्टरनेट के भी मोबाइल बैंकिंग और कैशलेस बैंकिंग संभव है। *99# डायल करके यूएसएसडी सर्विस के ज़रिए बेसिक फीचर मोबाइल से भी कैशलेस ट्रांजेक्‍शन उतनी ही आसानी से किया जा सकता है। डेबिट कार्ड से भी कैशलेस पेमेंट्स मुमकिन है।

यही नहीं ये भी कहा जा रहा है कि देश में मोबाइल की पहुंच अभी भी बेहद कम है, लेकिन उस पर भी यदि बात की जाए तो ट्राई के मई 2016 के आंकड़ों के मुताबिक देश में 1033.16 मिलियन, यानी 1 अरब से ज्यादा मोबाइल सब्सक्राइबर्स हैं।  ग्रामीण इलाकों आंकड़ा 44.89 करोड़ है। देश में मोबाइल की टेलीडेंसिटी (Teledensity Number of connections per hundred individuals) 81.18 है जबकि ग्रामीण इलाकों में भी ये 51.27 पहुंच चुकी है। 81% Penetration Rate के साथ भारत दुनिया के टॉप देशों की लिस्ट में आता है। फ़िलहाल ग्लोबल Penetration Rate 101% है। इसके साथ ही मोबाइल के ज़रिए हमारा देश पूरी दुनिया में सबसे तेजी से जुड़ रहा है।

यही नहीं, Global Ericsson Mobility Report के मुताबिक़ 2016 की तीसरी तिमाही (Q3) में दुनिया में सबसे ज़्यादा 15 मिलियन नए मोबाइल सब्सक्राइबर्स भारत में जुड़े हैं। यही नहीं यह भी कहा जा रहा है कि हमारे देश में डेबिट और क्रेडिट कार्ड्स अभी सिर्फ़ गिने-चुने लोगों की ही सहूलियत की चीज है। लेकिन यह दावा ठीक नहीं है क्‍योंकि RBI के अगस्त 2016 के आंकड़ों के मुताबिक देश में इस वक़्त 71 करोड़ से ज्यादा (712465787) डेबिट कार्ड्स प्रयोग में हैं।  कैशलेस व्यवस्था पर सरकार के विशेष जोर के चलते आने वाले वक़्त में ये संख्या कहीं ज्यादा पहुंचने की उम्मीद है। जल्द ही रूपे कार्ड के ज़रिए हर ग्रामीण कार्ड होल्डर हो सकता है।

इधर, कैशलेस इकॉनॉमी के खिलाफ तर्क ये दिया जा रहा है कि बड़ी प्राकृतिक आपदा से कम्युनिकेशन सिस्टम क्रैश हो सकता है और अर्थव्यवस्था रुक जाएगी।  लेकिन यह दावा भी ठीक नजर नहीं आ रहा क्‍योंकि बैंकिंग सिस्टम पहले से ही ऑनलाइन है, इसलिए व्यक्तिगत रूप से कैश पर निर्भर होने के बावजूद भी कम्युनिकेशन सिस्टम क्रैश होने से बैंकिंग, संचार और परिवहन सब कुछ प्रभावित होगा। हॉर्वर्ड यूनिवर्सिटी के केनेथ रॉगऑफ ने अपने रिसर्च पेपर में इसका ज़िक्र किया है कि ये तर्क आज कितना अप्रासंगिक है। जरूरत व्यवस्था मज़बूत करने की है न कि उससे भागने की।

यही नहीं विरोध में यह भी तर्क दिया जा रहा है कि ई-बैंकिंग कैश से ज़्यादा ख़तरनाक है,लेकिन इस तर्क में भी कोई खास दम नजर नहीं आता क्‍योंकि कैश में खोने, चोरी होने चलते से लेकर लूटपाट तक के तमाम ख़तरे हमेशा बने रहते हैं। व्यवस्था में होने के चलते हमें उसकी आदत हो चुकी है।  ई-बैंकिंग में ख़तरा केवल हैकर्स का होता है, लेकिन झांसे या लालच से दूर रहकर इससे आसानी से बचा जा सकता है। मोबाइल बैंकिंग में डाटा ऑनलाइन स्टोर नहीं होता, बल्कि आपकी डिवाइस पर ही रहता है। लिहाजा ये बेहद सुरक्षित सिस्टम है।

सच्चाई ये है कि आज हम दुनिया में सबसे तेज कम्युनिकेशन टेक्नोलॉजी को अपनाने वाले देशों में से एक हैं, लेकिन बताने की कोशिश ये होती है कि पहचान के तौर पर हम केवल पिछड़े और ग़रीब देश हैं। इस देश के नेताओं और बहस-विशारदों को आदत हो गई है कि वो हर परिवर्तन के सामने किसानों को रोड़ा बनाकर पेश कर देते हैं, जबकि हकीक़त ये है कि इन किसानों के बेटे भी आज फेसबुक, व्हाट्सएप्‍प चलाना जान रहे हैं, और सीख रहे हैं। हमें ‘किसान मतलब अनपढ़’ की मानसिकता से बाहर आना होगा, तभी देश का किसान गरीबी से बाहर आ सकता है। पिछली पीढ़ी न सही, वर्तमान और आने वाली पीढ़ी ही सही।

आपको शायद हैरानी होगी कि नाइजीरिया जैसा पिछड़े अफ्रीकी देश ने 2020 तक दुनिया की 20 सबसे उभरती अर्थव्यवस्थाओं में शामिल होने का लक्ष्य रखा है और इसके लिए कैशलेस अर्थव्यवस्था की मुहिम शुरू की है, लेकिन हम दुनिया की पहली सबसे उभरती अर्थव्यवस्था होकर भी कैशलेस लेन-देन को बढ़ावा देने की अपनी क्षमता पर संदेह जता रहे हैं। दुनिया की ज़्यादातर बड़ी अर्थव्यवस्थाएं कैशलेस सिस्टम को काफी तेजी से अपना रही हैं। नॉर्वे, डेनमार्क, फ़िनलैंड और स्वीडन जैसे देश लगभग 100% कैशलेस होने की तरफ हैं। स्वीडन में 98% पेमेंट कैशलेस हो रहे हैं और बैंकों को कैश रखने की जरूरत नहीं होती है, लिहाजा बैंक लूटने जैसे बड़े आर्थिक अपराध अपने आप नियंत्रित हो गए हैं।

इधर, अमेरिका में भी कुल कीमत का 86% लेन-देन कैशलेस है। ब्रिटेन, फ़्रांस और कनाडा जैसे कई देश 50% से ज्यादा अर्थव्यवस्था को कैशलेस कर चुके हैं। विकासशील अर्थव्यवस्थाओं में शुमार हमारा प्रतिद्वंदी चीन भी मास्टर कार्ड के आंकड़ों के मुताबिक 10% से ज्यादा कैशलेस हो चुका है, बावजूद इसके कि चीन की अर्थव्यवस्था भारत की अर्थव्यवस्था से पांच गुनी से ज्यादा है, जबकि हमारे देश में 98% व्यवस्था कैश में ही चल रही है, अर्थात् हम केवल 2% ही कैशलेस हो पाए हैं, और हम प्रतियोगिता दुनिया की तमाम बड़ी अर्थव्यवस्थाओं से करना चाहते हैं।

हॉर्वर्ड यूनिवर्सिटी के एक रिसर्च पेपर के मुताबिक़ दुनिया में हर साल 2 ट्रिलियन (लगभग भारत की कुल GDP के बराबर) से ज़्यादा का फांनेंशियल क्राइम फ्लो है और करीब 1 ट्रिलियन भ्रष्टाचार में जाते हैं। यही वजह है कि दुनिया के तमाम देश अब 100% कैशलेस होना चाहते हैं और इस पर बहस कर रहे हैं। यूरोपियन सेंट्रल बैंक कैशलेस अर्थव्यवस्था की तरफ बढ़ने के लिए 500 यूरो के नोट को बंद करने का प्रस्ताव भी कर चुका है। हॉर्वर्ड की रिसर्च पर काम करने वाले फेलो पीटर सेंड्स, कैश से आतंकवाद को मिलने वाली मदद की वजह से 500 यूरो के नोट को ‘बिन लादेन’ बुलाते हैं।

इसी तरह हॉर्वर्ड के ही एक और स्कॉलर केनेथ रॉगऑफ़ के रिसर्च पेपर में जो कि सेंट्रल बैंक के आंकड़ों के आधार पर ज़िक्र है कि अमेरिका की कुल करेंसी का केवल 10-15% ही लीगल इकॉनमी में प्रयोग होता है। दुर्भाग्य से भारत में इस तरह के आंकड़ों पर उतनी गंभीरता से काम नहीं होता, हालांकि आतंकवाद, माओवाद, ड्रग्स और भ्रष्टाचार की समस्या और भी गंभीर है। कुछ रिपोर्ट्स के मुताबिक रिज़र्व बैंक के कुछ साल पुराने सर्वे में साफ़ हुआ था कि 1000 के कुल नोट्स का केवल एक तिहाई ही मार्किट में सर्कुलेशन में थे।

दरअसल, 100% कैशलेस अर्थव्यवस्था बनाने के नफ़ा-नुकसान पर बहस हो सकती है, और ये बात भी सही है कि अभी शायद हम 100% कैशलेस नहीं हो सकते, लेकिन दुनिया की सबसे तेजी से उभरती अर्थव्यवस्था होकर क्या हम भविष्य के रास्ते पर केवल 2% ही बढ़ने की क्षमता रखते हैं?  क्या हम सभी संभावनाएं और संसाधन होने के बाद भी 40-50% लेन-देन भी कैशलेस नहीं कर सकते? केवल सवाल खड़े करने वालों पर अगर हम भरोसा करते तो हम आज दुनिया में आईटी हब कभी नहीं बन पाते, क्योंकि उनके मुताबिक कंप्यूटर इस देश में बेरोजगारी और तबाही का ज़रिया बनने वाला था। देश के कंप्यूटर युग के लिए ढोल पीटकर राजीव गांधी का नाम लेने वाली कांग्रेस जब राहुल गांधी का ट्विटर अकाउंट हैक हो जाने पर डिजिटल इंडिया और ई-बैंकिंग पर सवाल खड़े करने लगे तो इसे क्या माना जाए?

यकीनन, 21वीं सदी में नेताओं, बुद्धिजीवियों और पत्रकारों को वैज्ञानिक रूप से ना भी सही तो तकनीकी रूप से साउंड अनिवार्य रूप से होना ही चाहिए। केवल वोटशास्त्र, इतिहास, साहित्य और भाषा की बदौलत अब प्रासंगिक नहीं रहा जा सकता। देश की तकनीकी क्षमताओं और सीखने और बदलाव की प्रवत्ति पर शक नहीं करना चाहिए। ये नेताओं को 2014 में ही सीख लेना चाहिए था। हो सकता है कि डिजिटल बैंकिंग को नोटबंदी के बिना भी लागू किया जा सकता था, लेकिन नोटबंदी के वक़्त से ज्यादा बेहतर मौका इस नए युग को प्रोत्साहित करने का दूसरा नहीं है।

मोदी सरकार से बेशक नोटबंदी पर सवाल किए जाने चाहिए और उससे होने वाले नफ़ा-नुकसान का भी विश्लेषण होना चाहिए, और ख़ासतौर पर 2000 के नोट की ज़रुरत पर भी सवाल पूछे जाने चाहिए (अगर ये हमेशा चलने वाला है)., लेकिन इन सब सवालों के साथ और बस विरोध की वजह से ही कैशलेस और डिजिटल बैंकिंग को भी आलोचना में घसीट लेना सरकार का नहीं, बल्कि भविष्य का विरोध है। देश को भविष्य की ओर बढ़ना ही है, और हर सफ़र में थोड़े-बहुत पत्थर होते ही हैं। अब ये भविष्य के विरोधियों को तय करना है कि वो देश के इस सफ़र के हमसफ़र बनेंगे या रास्ते के पत्थर।