भोपाल। रतलाम लोकसभा सीट को जीतने के लिए सत्ताधारी दल भारतीय जनता पार्टी ने पूरी ताकत झोंकी, फिर भी वह कामयाब नहीं हो सकी। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कुल मिलाकर 16 दिन लोकसभा क्षेत्र में आने वाले तीनों जिलों को दिए, लगभग दो हजार करोड़ रुपए से ज्यादा के निर्माण कार्य और योजनाओं की घोषणाएं कीं, भूमिपूजन किया। चुनाव में एक दर्जन मंत्रियों की ड्यूटी लगाई गई, 50 विधायक और 13 सांसदों ने मोर्चा संभाला।

पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी से लेकर संघ की टोली और केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर की मौजूदगी चुनाव में रही, फिर भी बीजेपी आदिवासियों का भरोसा जीतने में कामयाब नहीं हो सकी। पार्टी के लिए भी ये परिणाम चौंकाने वाले हैं और चिंतन का विषय कि आखिर चुनाव प्रबंधन में कहां चूक हुई।

लोगों तक अपनी बात पहुंचाने में पार्टी सफल क्यों नहीं रही। पार्टी नेता भले ही इसे संगठन की कमजोरी मान लें, लेकिन राजनीतिक पंडित मानते हैं कि यह शुभ संकेत नहीं है। बीजेपी को उन मुद्दों को तलाशना होगा, जिनके कारण रतलाम सीट उसके हाथों से निकल कर वापस कांग्रेस के पास चली गई।

पेटलावद हादसा- बीते 12 सालों में अधिकांश उपचुनाव बीजेपी ने जीते। केंद्र में सरकार बनने के बाद प्रदेश का पहला लोकसभा उपचुनाव रतलाम में पार्टी क्यों हारी? इस पर पार्टी में मंथन का दौर शुरू हो गया है। पार्टी के नेता कह रहे हैं कि पेटलावद के विस्फोट में बेकसूर लोग मारे गए। आम लोगों को इंसाफ नहीं मिल पाया। सारा मामला कानूनी दांवपेंच में दब गया।

सरकार को जिस तरह सख्ती और कठोरता से कार्रवाई करनी थी, सरकार ने उतनी गंभीरता नहीं दिखाई। उसी का नतीजा है कि जनता की नाराजगी वोटों में तब्दील हो गई और पूरे प्रयास के बाद भी हार का सामना करना पड़ा। दोषियों को बचाने की कोशिश का दंड बीजेपी को भुगतना पड़ा।

कई मुद्दे और महंगाई का रहा जोर –यह पराजय भी पार्टी को तब मिली जब मुख्यमंत्री के तौर पर शिवराजसिंह चौहान दस साल पूरे कर रहे हैं। आदिवासियों की नाराजगी बताती है कि सत्ता और संगठन में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है। रतलाम के चुनाव में कोई एक मुद्दा अकेला नहीं था।

चाहे व्यापमं घोटाले की बात की जाए तो मेघनगर की नम्रता डामोर की हत्या, पत्रकार अक्षय सिंह की संदिग्ध परिस्थितियों में हुई मौत, किसानों की आत्महत्या, आरक्षण, भूमि अधिग्रहण कानून, फसल चौपट होने के बाद किसान मजदूरों की बेरोजगारी और महंगाई जैसे मुद्दों ने मतदाताओं को प्रभावित किया।

दो सौ रुपए किलो की दाल ने भी असर दिखाया। नोटा को मिले 24 हजार से ज्यादा मतदाताओं ने कहीं न कहीं वंशवाद के खिलाफ अपना संदेश साफ तौर पर दोनों पाटियों को दिया है। बाहरी कार्यकर्ता और नेताओं की फौज का भी मतदाताओं के दिल-दिमाग पर बुरा असर पड़ा। वे मत तो दिला नहीं पाए, स्थानीय कार्यकर्ताओं को नाराज जरूर कर बैठे।

सुधार की जरूरत –चुनाव की बागडोर पूरी तरह से मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहाने ने अपने हाथों में रखी। नामांकन से लेकर पूरे चुनाव में सीएम ने 52 सभाएं की। रोड शो भी किए। एक-एक कार्यकर्ता से मिले। गांव-गांव दौरे किए। रात्रि विश्राम भी किए। फिर भी जो परिणाम आए हैं वे कह रहे हैं कि नेताओं के साथ साथ यह हमारे तंत्र में भी सुधार की जरूरत है। सुशासन के सारे दावों पर भी नए सिरे से विचार की जरूरत है।

कार्यकर्ताओं को सत्ता की चमक-दमक की राजनीति से दूर रहने के लिए ये परिणाम संकेत दे रहे हैं। राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि संगठन को भी सत्ता के अधीन रखने की प्रवृत्ति में अब बदलाव लाना होगा। जब संगठन और सबल होगा उसका नेतृत्व प्रभावी होगा। तभी कार्यकर्ता भी पूरी उर्जा के साथ चुनावी समर में उतरेगा। कई मायनों में ये चुनाव बीजेपी को संदेश दे रहा है कि पेटलावद हादसे में जिस माफियागिरी से दोषियों को बचाने की कोशिश की गई, पार्टी को उसी का दंड भुगतना पड़ा है।