हिंदुओं में सिन्दुर का बहुत महत्व है। महिलाओं के लिए यह एक प्रमुख सुहाग चिन्ह है। मान्यता है कि इसे रोज लगाने से पति की आयु लंबी होती है। यह सुहाग का एक प्रतीक चिन्ह है।हमारी भारतीय परंपरा में ‘प्रतीक चिन्होंÓ का बहुत ही महत्वहै। सिन्दूर को ‘सुहाग का प्रतीकÓ माना जाता है। जब पुरुष एवं स्त्री वैवाहिक जीवन सूत्र में बंधने का संकल्प करते हैं तो उस समय अन्य रीति-रिवाजों के साथ ही पुरुष स्त्री की मांग में सिन्दूर भरता है। इसके बाद स्त्री उस पुरुष के जीवन तक नियमित रूप से अपनी मांग में सिन्दूर भरती हुई उसके लंबे जीवन की कामना करती रहती है।

सिन्दूर मांग में भरने का या लगाने का रिवाज कब से शुरू हुआ, इसकी जानकारी सम्यक रूप से किसी ग्रंथ विशेष में प्राप्त नहीं होती किन्तु ‘केनोपनिषद्Ó के आख्यान से यह ज्ञात होता है कि इसका प्रारम्भ रामायण युग से पूर्व ही हो चुका था।सिन्दूर हिंदुओं के सभी अनुष्ठानों का आवश्यक अंग है। देवी-देवताओं की पूजा के बाद सुहागिनें देवी के माथे पर लगे सिन्दूर को लेकर अपनी मांग में लगा देती हैं। देवी के माथे की लालिमा लगाकर महिलाएं देवी शक्ति को प्राप्त करने की कामना करती हैं। नवजात शिशु के जन्म के बाद षष्ठी पूजा के दिन भगवान के आशीर्वाद के रूप में माथे पर सिन्दूर लगाया जाता है। सिन्दूर लगाने के बाद नारी अपने को असहाय महसूस नहीं करती है क्योंकि इससे उसको आत्मबल का बोध तो होता ही है, साथ ही लोगों की संवेदना भी उसके साथ जुड़ी रहती है।

भारतीय सभ्यता में स्त्रियां अपनी मांग में सिन्दूर सजा कर गौरवान्वित होती हैं परंतु बदले परिवेश ने सिन्दूर के स्वरूप को अवश्य बदल दिया है।सिर के बिल्कुल बीचों-बीच मांग निकालकर उसमें मांग भरने का रिवाज अनादि काल से चला आ रहा है। वास्तव में जिस स्थान पर (सिर के बीचों-बीच) मांग पर सिन्दूर लगाया जाता है उस स्थान को शून्यचक्र जाता है। शरीर में स्थित ‘षट्चक्रोंÓ (मूलाधार चक्र, स्वाधिष्ठानचक्र, मणिपूरक चक्र, अनाहत चक्र, विशुद्घाख्यचक्र तथा आज्ञाचक्र) के ऊपर ‘शून्यचक्रÓ होता है। इस शून्यचक्र पर सिन्दूर का लेप लगते रहने से ‘कुण्डलिनीÓ की रहस्यमयी शक्तियां जाग उठती हैं।