बुधिया सिंह ने भारत को ओलंपिक में दिलाया एथलेटिक्स का पहला गोल्ड मैडल! रियो में आज से शुरू हुए खेलों के महाकुंभ में आने वाले दिनों में शायद यह अखबार के पहले पन्ने की खबर बनती। मगर ऐसा नहीं होगा। 2016 के ओलंपिक खेलों के लिए बुधिया को तैयार कर रहे उसके कोच बिरंची दास की 2008 में हत्या कर दी गई थी। उसके पीछे क्या कारण थे, उन पर आज भी धुंध के बादल हैं। लेकिन इससे भी पहले बुधिया और बिरंची के सुनहरे भविष्य की तरफ बढ़ते कदमों को रोकने के लिए बहुत सारी राजनीतिक कीलें बिछा दी गई थीं, जिन्होंने उनके पैरों को लहूलुहान किया।budhia-singh

बुधिया के लंबी दूरी तक दौड़ने पर जो पाबंदी लगी वह आज तक जारी है। बुधिया खिलाड़ी है लेकिन सिर्फ रिकॉर्ड दर्ज करने वाली किताबों में। लेखक-निर्देशक सौमेंद्र पाधी की यह पहली फिल्म है। जो बुधिया के साथ बिरंची की भी सच्ची दास्तान है। यह भाग मिल्खा भाग और मैरी कॉम की तरह स्पोर्ट्स फिल्म है। यह अलग बात है कि इसे 2016 की सर्वश्रेष्ठ बाल फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला है। जूडो कोच बिरंची ने कैसे गरीब बुधिया की प्रतिभा को पहचाना, उसे गोद लेकर अपना बेटा बनाया और रात-दिन तराशा।

मात्र पांच साल की उम्र के बुधिया को बिरंची ने दुनिया का सबसे नन्हा मैराथन धावक बना दिया। मगर बच्चों, औरतों, गरीबों के नाम पर राजनीतिक रोटियां सेकने वालों ने इन्हें रोकने के लिए तमाम हथकंडे अपनाए। क्या यह सच नहीं कि सत्ता निजी प्रयासों से उभरते किसी व्यक्ति को इतना ऊंचा उठते देखना नहीं चाहती कि लोग व्यवस्था को दोयम मानने लगें? इसीलिए खेल, संस्कृति, सिनेमा और साहित्य से राजनीति का कद ऊंचा है।