नरेंद्र मोदी को कट्टर हिंदूवादी नेता की छवि के चौखटे में कैद रखने की विपक्षी नेताओं की कोशिशों को बृहस्पतिवार को जबर्दस्त झटका लगा। ‘मुस्लिम टोपी पहनने से इन्कार’ जैसी तोहमतों के निशाने पर रहे मोदी ने इसे एक ही झटके में ध्वस्त कर दिया। मोदी जब रोहनिया रैली में मंच पर उपस्थित आजाद हिंद फौज के सिपाही 113 वर्षीय कर्नल निजामुद्दीन के दोनों पैर छूकर उनका आशीर्वाद ले रहे थे तो राजनीति के पंडितों ने इस मंच से बहुत ही मजबूत पैगाम की पदचाप को शिद्दत से महसूस किया। मोदी ने मंच से यह घोषणा भी की कि नेताजी के सपनों को पूरा करने में कसर बाकी नहीं रखूंगा।

नरेंद्र मोदी की छवि को लेकर विपक्षी दल नकारात्मक माहौल बनाते रहे हैं। कुछ समय पूर्व केंद्र सरकार के अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री के. रहमान खान ने कहा था, मोदी को मसीहा के तौर पर पेश किया जा रहा है, जो वह हैं नहीं। गुजरात दंगों के बाद भी मोदी को लेकर देश में खासकर मुस्लिमों में अलग तरह का संदेश गया था। रोहनिया की सभा में मोदी अपनी इस छवि को उतार फेंकने में काफी हद तक कामयाब रहे। मोदी द्वारा निजामुद्दीन के चरण छूने के बाद अन्य दलों के नेता खुद को असहज पा रहे हैं। कांग्रेस, आप व सपा ने नुकसान की भरपाई की कोशिशें भी शुरू कर दीं। देर शाम मोदी के रोड शो के समकक्ष अन्य दलों के प्रत्याशी मुस्लिम बहुल इलाकों में चक्कर लगाते देखे गए। कुछ नेता यह कहते भी सुने गए कि मोदी कोई चुनौती नहीं हैं। निजामुद्दीन के चरण स्पर्श ने काशी में बहस की आधारशिला रख दी है।

नेताजी के सुरक्षा प्रहरी थे कर्नल निजामुद्दीन

नई दिल्ली, जागरण न्यूज नेटवर्क। निजामुद्दीन ने नेताजी सुभाषचंद्र बोस के वाहन चालक और सुरक्षा प्रहरी की भूमिका निभाई थी, लेकिन उन्हें स्वतंत्रता सेनानी का दर्जा देने की प्रक्रिया पिछले साल तब आगे बढ़ी जब आजमगढ़ प्रशासन उनकी ओर से पेश किए गए इस आशय के प्रमाणों से संतुष्ट हो गया कि वह नेताजी के साथ रहे थे। निजामुद्दीन के बेटे ने बताया कि पिताजी ने नरेंद्र मोदी को अच्छा नेता बताते हुए उनसे मिलने की इच्छा जताई थी।

निजामुद्दीन का जन्म आजमगढ़ के मुबारकपुर इलाके ढकवा गांव में 1901 को हुआ था। निजामुद्दीन के मुताबिक उनके पिता इमाम अली सिंगापुर में कैंटीन चलाते थे। 24-25 साल की आयु में वह भी गांव से भागकर पिता के पास सिंगापुर चले गए। यह वह दौर था जब सुभाष चंद्र बोस सिंगापुर में आजाद हिंद फौज के लिए युवाओं की भर्ती करने में लगे हुए थे। उन्होंने उनका चयन अपने निजी सुरक्षा गार्ड और वाहन चालक के रूप में किया और उन्हें कर्नल की उपाधि भी दी। वह इसी भूमिका में नेताजी के साथ दस साल रहे। उन्होंने नेताजी के साथ जापान, वियतनाम, थाईलैंड, कंबोडिया आदि देशों की यात्रा की। उनके अनुसार चूंकि अंग्रेज नेताजी की ताक में रहते थे इसलिए वह ज्यादातर पनडुब्बी के जरिये समुद्री यात्रा करते थे। नेताजी के रहस्यमय तरीके से लापता होने के बाद वह कोलकाता में उनके घर तक गए, लेकिन कोई सूचना न मिलने पर वह बर्मा लौट गए। जून 1969 में वह अपने गांव लौट आए थे। पहली बार 2001 में उन्होंने यह राज खोला कि वह नेताजी के साथ रहे। स्थानीय प्रशासन और सरकार ने उनके दावे को सत्यापित करने में 12 साल लगा दिए।