दंगल फिल्म बॉक्स ऑफिस पर तो दंगल मचा ही रही है, लोगों के दिलों पर भी राज कर रही है। लोग महावीर फोगाट के दीवाने हो गए हैं, और होना भी चाहिए पुरुषों के एकाधिकार वाले खेल में बेटियों को उतारने के लिए वो पूरे गांव व समाज से लड़ पड़े- ‘म्हारी छोरियां छोरों से कम है’। महावीर फोगाट ने अपनी बेटियों को बेटों की तरह ही पाला भी। उनकी ही कड़ी मेहनत और सपोर्ट के कारण गीता फोगाट कॉमनवेल्थ गेम्स में रेसलिंग में गोल्ड जीत पाई।

बहरहाल, ये तो रीयल से रील लाइफ में पर्दे पर उतरा सच है। देखा जाए तो हमारे देश कि हर बेटी को महावीर फोगट जैसा पिता मिल जाए, तो बेटियों को उनके सपने पूरे करने से कोई नहीं रोक सकता। लेकिन क्‍या हमारी आम रोजमर्रा की जिंदगी में पिता के रूप में महावीर फोगाट मिलना उतना आसान है? क्‍या हमारे समाज के भीतर हर पिता ऐसा हो सकता है? क्‍या आज के आधुनिक, शिक्षित समाज में हम गांव के महावीर जैसे पिता की कल्‍पना कर सकते हैं?

दरअसल, आज के दौर में नई पीढ़ी पुरानी पीढ़ी के सपनों का बोझ ढोती हुई दिखाई देती है। ऊंची नौकरी, कुछ कर गुजरने की महत्‍वाकांक्षा और प्रतिस्‍पर्धी समय में आर्थिक रूप से सक्षम बनने की चाह ने महानगरों के जाने कितने बचपन और जवानियों को स्‍वाह कर दिया। करियर की चाह ने माता-पिता को बच्‍चों से और बच्‍चों को अपने अभिभावकों से दूर कर दिया। 9 टू 5 की जॉब, उसमें बच्‍चों को इंजीनियर, डॉक्‍टर और किसी मल्‍टीनेशनल कंपनी में लाखों की सैलरी पाने वाला एक प्रोफेशनल बनाने की धुन अपने आप में एक हिंसा का हिस्‍सा है।