इंदौर। सराफा में चल रही हड़ताल से बेशक देश की आर्थिक स्थिति पर प्रभाव पड़ा हो लेकिन सबसे ज्यादा मुश्किलें कारीगरों की हो रही हैं। रोजाना 10 घंटे से भी ज्यादा मेहनत करने के बाद भी इन कारीगरों के हाथ में चंद रूपए ही आते हैं जिसमें से उन्हें बचत करना तो दूर घर चलाना भी कई बार मुश्किल हो जाता है।

2 मार्च से जारी हड़ताल अभी और कितने दिन जारी रहेगी इसके बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता। ऐसे में सराफा के कारीगरों की आर्थिक स्थिति बद से बद्तर होती जा रही है। कुछ परिवार तो ऐसे हैं जिनके पास राशन लेने तक के पैसे नहीं है और इसके चलते शहर के 60 फीसदी कारीगर अपने गांव इस उम्मीद से चले गए हैं कि वहीं उनकी बसर तो हो जाएगी।

8 हजार से ज्यादा कारीगरों के परिवार प्रभावित

शहर में सोने-चांदी की 2 हजार दुकानें हैं लेकिन कारीगरों की संख्या 8 हजार से भी ज्यादा है। कारोबार पूरी तरह से बंद होने से न केवल ये कारीगर बल्कि इनके परिवार भी प्रभावित हो रहे हैं। अमूमन हर कारीगर को अपने गांव भी आय का कुछ हिस्सा भेजना होता है पर इस माह स्थिति तो यह रही कि इन्हें ही बसर करने के लिए गांव जाना पड़ रहा है।

इनकी भी है आफत

सोने-चांदी के आभूषण बनाने वाले इन कारीगरों के अलावा इस बाजार पर सोने की पॉलिश करने वाले, डस्टिंग कॉटन खरीदने वाले, मीनाकारी व आभूषणों की रिपेयरिंग करने वाले और धूल से सोने के कण निकालने वाले निर्भर हैं। ये वे लोग हैं जो प्रतिदिन 3 सौ से 4 सौ रूपए कमाते हैं। इन्हें मासिक वेतन नहीं मिलता। ऐसे में इनकी मुश्किल और भी बढ़ गई है। सराफा में ये काम करने वाले करीब 400 लोग हैं।

अब तो कोई उधार भी नहीं दे रहा

शेख नूर हसन के परिवार में दो बच्चे, पत्नी और बहन है। सराफा में कारीगरी करके 12 हजार रूपए महिना कमा लेता हूं और इसमें से 3 हजार रूपए मकान के किराए में खर्च हो जाते हैं। बच्चों की स्कूल फीस और घर का राशन व अन्य खर्च के बाद बमुश्किल कुछ बचत हो पाती है। इस पूरे माह सराफा बंद होने से बिल्कुल आय नहीं हुई ऐसे में उधार लेकर घर खर्च चलाया जा रहा है पर अब तो उधार भी कोई देने को तैयार नहीं।

पिता के इलाज के लिए नहीं भेज सका पैसे

राकेश दास के पिता की तबियत खराब थी। गांव से इलाज के लिए पैसे मंगवाए गए लेकिन राकेश मजबूर थे क्योंकि उनके पास न फिलहाल न तो आय का जरिया है और ना ही बचत की पूंजी जिसे वे पिता के इलाज के लिए भेज सकें। राकेश कहते हैं कि इस महिने तो स्थिति यह हो गई कि गैस की टंकी खत्म होने के बाद नई टंकी लेने की भी गुंजाइश नहीं रही।

खाली हाथ जा रहा हूं अपने गांव

हावड़ा के रहने वाले तपनसिंह यहां अपनी पत्नी मोएना और बेटी संगीता के साथ रहते हैं लेकिन इनकी एक बेटी, माता-पिता और भाई हावड़ा में ही रहते हैं। तपन भी अब हावड़ा जा रहे हैं। इसकी वजह है यहां बिगड़ती आर्थिक स्थिति। वे कहते हैं कि सोचा था कि इस बार गांव जाउंगा तो थोड़े ज्यादा पैसे लेकर जाऊंगा लेकिन स्थिति विपरित है। अब गांव इसलिए जा रहा हूं ताकि तंगी के दौर में वहां आसानी से गुजर हो सके। वैसे भी अधिकांश साथी यहां से चले गए हैं।

60 फीसदी कारीगर लौटे गांव

इस हड़ताल से कारिगरों की स्थिति बहुत बिगड़ गई है। शहर के 60 फीसदी कारीगर हड़ताल के कारण गांव चले गए हैं। कई व्यापारियों द्वारा कारीगरों की आर्थिक मदद की गई है लेकिन स्थिति अभी भी बद्तर है। इस समस्या को लेकर जल्द ही बैठक आयोजित की जाएगी ताकि बीच का रास्ता निकल सके।

मो. यासीन शेख, अध्यक्ष, बंगाली स्वर्णकार संघ

जिन कारीगरों को मासिक वेतन मिलता है उनकी स्थिति तो खराब है ही साथ ही रोज काम करके रोज कमाने वाले कर्मचारियों की स्थिति और भी बुरी है। हड़ताल अभी कब तक चलेगी इसका निर्णय नहीं हुआ। इन कारीगरों की मासिक आय 6 हजार से लेकर 12 हजार रूपए है। ऐसे में इनके पास बचत जैसी व्यवस्था नहीं होने से मुश्किल और भी बढ़ गई है।

बसंत सोनी, सह सचिव, इंदौर चांदी सोना जवाहरात व्यापारी एसोसिएशन

एक नजर तथ्यों पर

* शहर में बंगाल से आए कारीगरों की संख्या 7 हजार है।

* स्थानीय व अन्य कारीगरों की संख्या करीब 1 हजार है।

* भोपाल में कारीगरों की संख्या 4 हजार, रतलाम में 2 हजार, उज्जैन में 1 हजार और प्रदेश के शेष शहरों में कारीगरों की संख्या करीब 10 हजार है।

* व्यावसायिक राजधानी होने के नाते यहां के कारीगरों को अन्य शहरों की अपेक्षा ज्यादा वेतन मिलता है।

* एक औसत कारीगर को 6 से 8 हजार रूपए प्रतिमाह व कुशल कारीगर को 10 से 12 हजार रूपए प्रतिमाह के हिसाब से वेतन मिलता है।

* बाहर से आए कारीगर भी अब अपने गांव लौटने की तैयारी कर रहे हैं ताकि वहां गुजर-बसर सहजाता से की जा सके।