गांधी बलिदान दिवस, 30 जनवरी पर एक बार फिर देश अपने शहीदों को याद करेगा. इस दिन होने वाले ढेर सारे कार्यक्रमों का केंद्र बनता है राजघाट. यहां राष्ट्रपति महोदय ठीक 10 बजकर 58 मिनट पर गांधी समाधि पर एक विशेष फूल माला चढ़ाते हैं. फिर सेना के तीनों अंगों की तीन टुकड़ियां अपने हथियारों को उलटा करती हैं.

सेना के बिगुलवादक अपने बिगुल पर ‘लॉस्ट पोस्ट’ नामक धुन बजाकर पूरे देश में दो मिनट का मौन प्रारंभ होने का संकेत देते हैं. सेना की तोप इस मौन की सूचना गोला दागकर देती है. और सब जगह तो शायद नहीं, पर गांधी समाधि पर तो सब कुछ थम जाता है. बस थमती नहीं है गुलामी की जंजीरों की तेज खनखनाहट. इन जंजीरों को हम इतने सारे वर्षों की आजादी के बाद भी हटाना नहीं चाहते.

गुलामी की ये जंजीरें बहुत ही भव्य जो हैं! हमारे इस शहीद दिवस की रस्म का हर अंग, एक-एक हिस्सा ब्रितानी सैनिक प्रतीकों से भरा पड़ा है. आजादी की लड़ाई में शहीद हुए लोगों के सपनों से ये प्रतीक बिलकुल मेल नहीं खाते. वे लोग जिनके विरुद्ध लड़े थे, उनकी, अंग्रेजों की सैन्य परंपरा की भव्यता का ही बखान करते हैं ये प्रतीक.

यह घिनौना काम और कहीं भी होता तो चल जाता, पर यह तो होता है गांधी समाधि पर. उसकी समाधि पर जिसका हथियारों, बंदूकों, सेना और ब्रितानी रीति-रिवाज, तौर-तरीकों से कोई भी संबंध नहीं था.

दुनिया भर में अहिंसा का प्रतीक बन गई इस समाधि, राजघाट पर हमारी सेना के तीनों अंगों से चुनकर बनाई गई तीन टुकड़ियों का प्रवेश होता है. सारे श्रद्धालु इस जगह जूते उतार कर आते हैं, पर इस दिन तीनों टुकड़ियों के सैनिक अपने चमकाए गए शानदार जूतों के साथ यहां प्रवेश करते हैं. इसके बाद का सारा समारोह ब्रितानी सेना की उन विशिष्ट परंपराओं से मंडित होता है, जो उनके हिसाब से ठीक ही रही होंगी.

लेकिन बीच में अचानक गांधीजी का प्रिय भजन ‘रघुपति राघव राजा राम’ भी सुनाई दे जाए तो चौंक मत पड़िए. यह इस भव्य माने गए कार्यक्रम का मूल हिस्सा नहीं था. बहुत बाद में और शायद बहुत बेमन से इसे उस कार्यक्रम का हिस्सा बनाया गया था.

गांधीजी के प्रिय भजन गाए जाने लगते हैं. राष्ट्रपति महोदय के आने की सूचना मिलती है. उनका प्रवेश होता है समाधि पर तो भजन गायन का स्वर धीमा पड़ने लगता है. भजन पूरा होना भी जरूरी नहीं है. बस यह तो राष्ट्रपति के आगमन तक समय बिताने, वक्त काटने का एक सुंदर तरीका बना लिया गया है.

अब राष्ट्रपति पुष्पांजलि अर्पित करते हैं. यह श्रद्धासुमन देसी या गंवारू ढंग से अर्पित नहीं किए जाते. यूरोप में, इंग्लैंड में जिसे ‘रीथ’ कहा जाता है, उसे यहां अपनाया गया है शुरू से ही. एक बड़े गोल आकार में सजे फूलों की माला. प्राय: यह टायरों पर ताजे फूलों को सजाकर बनाई जाती है. फिर बजता है बिगुल. ‘लॉस्ट पोस्ट’ की धुन. इसी शोक धुन से ब्रितानी फौज अपने शहीदों को याद करती आ रही है.

इसके बाद प्रारंभ होता है दो मिनट का मौन. यह मौन श्रद्धांजलि भी हमारी परंपरा का अंश नहीं है. और न ग्यारह बजे का समय भी. ऐसा बताया जाता है कि प्रथम महायुद्ध के बाद सन् 1918 को ठीक ग्यारह बजे युद्ध विराम संधि पर दस्तखत हुए थे. शहीद दिवस के आयोजन में इसी समय को चुन लिया गया है.

शहीदों की याद में दो मिनट के मौन में अपनी गुलामी की जंजीरों को जोर-जोर से बजाने वाला यह समारोह सन् 1953 से शुरू हुआ था. इससे पहले गांधी समाधि पर 30 जनवरी को चार बार यह शहीद दिवस बहुत ही सादगी से, पर बहुत ही श्रद्धा से मनाया गया था.

उन दिनों समाधि भी बहुत ही सीधी-सादी थी. न तो आज की तरह उस पर काला संगमरमर मढ़ा गया था और न चौबीस घंटे गैस बर्बाद करने वाली ‘अमर ज्योति’ वहां जला करती थी. सन् 1951 में संसद ने ‘राजघाट समाधि अधिनियम’ पारित किया था. समाधि की देखभाल, रख-रखाव के लिए तब के आवास मंत्रालय (अब शहरी विकास) के अंतर्गत एक समिति का गठन किया गया था. बस इसी के बाद शुरू हुआ था यह भव्य समारोह जो तब से आज तक बराबर दुहराया जाता है.

इस समिति के अध्यक्ष प्राय: कोई वरिष्ठ गांधीवादी रखे जाते हैं पर बाकी काम अपने ढंग से होता रहता है. सन् 1970 में पहली बार संसद के तीस सदस्यों ने आचार्य कृपालानी, मधु लिमये और समर गुहा के नेतृत्व में इस शहीद दिवस समारोह में भरी पड़ी ब्रितानी रस्मों का विरोध किया था और सार्वजनिक रूप से बयान आदि देकर इसकी निंदा की थी. राजघाट समिति के कुछ सदस्यों ने भी इसमें उनका साथ दिया था.

ऐसा नहीं था कि सरकार ने इतने बड़े और इतनी बड़ी संख्या में आगे आए संसद सदस्यों की बात को गंभीरता से नहीं लिया था. पर तब 30 जनवरी आने ही वाली थी. सरकार ने अपनी मजबूरी बताई. कहा कि इतना कम वक्त बचा है, इसमें तो कोई बुनियादी बदलाव नहीं लाया जा सकेगा. संसद सदस्य भी उदार हृदय वाले थे. धीरज वाले थे.

इस तरह सन् 1971 का समारोह ज्यों का त्यों मनाया गया. उसके बाद अगले साल भी यह काम हो नहीं पाया. तब तो सरकार के पास वक्त की कोई कमी नहीं थी, इच्छा की कमी जरूर रही होगी. इसलिए 1972 के समारोह में भी समारोह का मूल रूप, ब्रितानी परंपरा ज्यों की त्यों रही. बस गांधीजी के कुछ प्रिय भजन जरूर जोड़ दिए गए थे. वह भी ऐसी जगह, जिससे मूल कार्यक्रम पर भजनों की उपस्थिति पता न चल पाए.

तब रक्षामंत्री से इस बारे में पूछा गया था कि यह सब बदल क्यों नहीं पा रहा? उनका उत्तर था : ‘सरकार ने सभी विरोधी दलों की राय ले ली है.’ यानी कम से कम ब्रितानी नकल के मामले में हमारे सत्तारूढ़ दल और विरोधी दलों में दूरी घट चली थी.

सन् 1973 से लेकर 1976 तक सत्तारूढ़ दल और विरोधी दल और भी जरूरी कामों में व्यस्त रहे होंगे. तब आ गया 1977. विरोधी दल ही सत्ता में आ गया. कुछ को लगा था कि अब तो यह समारोह बदल ही जाएगा, पर ऐसा नहीं हुआ. अब कब होगा?